“मर-मर के जीवन में आया”
(असली और नकली क्रूस – कविता)
सोचा था, सोने का मैंने
हीरे मोती, जड़ा हो जिसमें
चाहा वो ही, क्रूस था मैंने
जो प्रिय हो सबकी आंखों मैं
दूर दूर तक, ढूंढा मैंने
देश विदेश, भी घूमा था मैं
भूलभुलैय्यों, की गलियों में
दुनिया की चौड़ी सड़कों में
लोगों ने भी, पते दिए थे
घर बाजार, और उन लोगों के
जिनके गले, कान, चोगे पर
क्रूस के बुत भी लटक रहे थे
उस दिन मैं, यूँ बंजारा सा
उसे खरीदने, निकल पड़ा था
एक आवाज़, पीछे से आयी
मैंने अपनी नज़र घुमाई
गौर से देखा, मैंने उसको
हांथों के सब, उन ज़ख्मों को
क्रूस था मेरा, मैं ही देता
उसको जो पीछे हो लेता
कांधे पर जब, उसे उठाया
बोझ से दबकर, उठ न पाया
दर्द, अपमान, हो लहूलुहान मैं
मर-मर के जीवन में आया
अब मैं जीवित, नहीं रहा हूँ
मरकर फिर से, जी भी उठा हूँ
पुनुरुत्थान और, जीवनदाता
मृत्युंजय प्रभु क्रूस विराजा
“जब मर जाता है, तो बहुत फ़ल लाता है”
यूहन्ना 12:24
आज सवाल है
कहीं नकली क्रूस लिए तो नहीं फिर रहे ?