किस्सा १९५३ का है, मेरे पिताजी ट्रैन में सफर कर रहे थे।(उनकी लिखी एक किताब में ये ज़िक्र है)
भीड़ बहुत थी।
एक छोटा सा स्टेशन आया, छोटा सा प्लेटफार्म था।
चाय,समोसे वाले, मूंगफली, और पानवाले खिड़की से ग्राहकों को खोज रहे थे, चंद पैसे अपने परिवार के पेट पालन के लिए पाने के प्रयास में थे।
पिताजी के साथ बैठे लोगों में से एक साधूजी थे उन्होंने एक पान खरीदा, लेकिन साधूजी पैसे निकालने में जानकर ढील करते रहे।
गाड़ी धीरे धीरे रफ्तार पकड़ने लगी, लेकिन साधूजी के पैसे निकले नहीं, पान वाला बच्चा हाँफता, दौड़ता चिल्लाता ही पीछे छूट गया ।
पिताजी ने साधूजी से सवाल किया,
साधूजी आप कहाँ – कहाँ तीर्थयात्रा पर जाकर आये हो ?
बड़े उत्साह से साधूजी ने एक दर्जन से अधिक तीर्थ गिना दिये।
ट्रैन के डिब्बे में बैठे सभी यात्रियों के सुनते पिताजी ने कहा।
महाराज जी,
आप की सारी तीर्थ यात्राएं आज बेकार हो गईं, क्योंकि आपके दिल में लालच ओर धोखा आया और आपने एक गरीब के पैसे लूट लिये।
सारे धरम – करम से आपका जीवन नहीं बदला।
(और वहां उस डिब्बे में बैठे सभी यात्रियों को पिताजी ने प्रभु यीशु में ‘मुक्ति’ और ‘नये जीवन’ का सुसमाचार सुनाया)
भगवाधारी साधू हो, सफेद चोगेधारी पादरी हो, हरी पगड़ी धारी मौलवी हो या आम आदमी हम सब की यही कहानी है, बस ज़िक्र अभी तक नहीं हुआ है
दूसरे यात्रियों ने हां में हां मिलाई।
“क्योंकि जो शरीर से जन्मा है वो शरीर है
और जो आत्मा से जन्मा है वो आत्मा है”
यूहन्ना ३:६
आज सवाल है,
कहां कहां तक गए हो मुक्ति (पाप से) पाने के लिये ?
सही बात कही। हमारे आफिस में कई ऐसे लोग हैैं जो प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन करके आये हैं। इन्ही मेें से हमारे सेक्शन आफिसर जब एक प्रसिद्ध मंदिर का दर्शन करके आफिस आये। उन्होंने वहां के संस्मरण सुनाए और प्रसाद वगैरा दिया। शिष्टाचारवश मैंने उनसे चाय पानी का पूछा तो उन्होंने इंकार कर दिया और कहा कि मैनें चाय त्याग करने का वचन मंदिर में करके आया हूं इसलिये अब मैं चाय नहीं पियूंगा। मैंने कुछ नहीं कहा। यही सोचने लगा कि इन्होंने रिश्वत, कामचोरी, भ्रष्ट आचरण को क्यों नहीं छोडा? ये सज्जन इन सब तरीकों के लिए हमारे आफिस मेें प्रसिद्ध (?) हैं।