आज मसीही जगत के बुरे हाल हैं। मसीहियत मात्र एक सामाजिक गतिविधि बन रही है।
मसीह के नाम पर प्रोजेक्ट (योजना) बनाये जाते हैं, फिर मसीह यीशु को रिबन काट कर उदघाटन के लिए बुलाया जाता है और आशीर्वाद माँगा जाता है।
युहन्ना ५:३० का वचन याद आता है। यहाँ प्रभु यीशु कहते है “मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता”
इसका अर्थ है, प्रभु यीशु इस संसार में जब मनुष्य रूप धारण करते हैं तो कोई भी काम या प्रोजेक्ट की योजना या शुरआत खुद नहींं करते। जब तक पिता नहीं चाहें।
प्रभु यीशु ने कोई काम इसलिए नहीं किया क्योंकि उन्हें अच्छा लगा पर इसलिए की पिता ने चाहा कि वो किया जाये।
वो आगे कहता है, “मैं अपनी इच्छा नहीं परंतु अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूँ।”
आज मसीही कार्य हमारे आर्गेनाइजेशन (संगठन) या चर्च के पैसे या बजट पर आधारित होता है।
काम प्रारम्भ करने के पहले हम परमेश्वर की योजना नहीं जानना चाहते हैं। शायद हम ये देखते हैं कि इसके लिए लोग पैसा देंगे या नहीं, हमारा नाम होगा या नहीं, या ये कि इस से हमारी इमेज या छवि बढ़ेगी अथवा नहीं।
हमारे पास कोई बोझ नहीं है बस सांसारिक सफलता चाहते हैं। प्रभु यीशु के सामने जब सारा शहर उमड़ आया था और उसके नाम की चर्चा और महिमा हो रही थी तो भी वो उसके बीच में ही उठकर पिता से प्रार्थना के लिए जंगल में चला जाता है। लूका ५:१५-१६
फिर लिखा है, उसने सारी रात पहाड़ पर प्रार्थना में बिताई। ताकि सुबह को अपने १२ चेले चुनने में पिता की अगुवाई मिले। लूका ६:१२-१३
अगर पर्मेश्वर के पुत्र को निर्णय लेने में इतनी अगुवाई और प्रार्थना की आवश्यकता है तो हमें कितनी है?
आज मसीही कार्य और योजनाओं (प्रोजेक्ट्स) के निर्णय घुटनों पर नहीं लिए जाते पर बोर्ड मीटिंग्स में और समर्थन (सपोर्ट) जुटाने के लिए देश विदेश में घूमते फिरते किये जाते हैं।
आज सवाल है?
कहीं आप प्रभु यीशु को अपने प्रोजेक्ट के उदघाटन में तो नहीं बुला रहे?
ये काम आपने प्रारम्भ किया था या प्रभु ने?
शिष्य थॉमसन